नोबेल शांति सम्मान की घोषणा इस बार 10 अक्तूबर को होगी.
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की लंबे समय इस पुरस्कार को हासिल करने की इच्छा रही है.
ट्रंप ये दावा कर चुके हैं कि उन्होंने कई युद्ध ख़त्म करवाए हैं.
इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू ने इस साल की शुरुआत में कहा था कि उन्होंने ट्रंप को इस पुरस्कार के लिए नामित किया है.
पाकिस्तान ने भी नोबेल शांति सम्मान के लिए ट्रंप को नामित किया था.
पाकिस्तान ने कहा था कि मई में भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्षविराम कराने में ट्रंप ने अहम भूमिका निभाई थी. लेकिन भारत ने इन दावों को ख़ारिज किया है और कहा है कि युद्धविराम कराने में कोई भी तीसरा देश शामिल नहीं था.
पाकिस्तान के नामित करने के बाद ही अमेरिका ने उसके पड़ोसी देश ईरान पर बमबारी की थी. इसके बाद पाकिस्तान की मंशा और अमेरिका दोनों पर सवाल उठे थे.
नोबेल शांति पुरस्कार, स्वीडिश वैज्ञानिक, उद्योगपति और परोपकारी अल्फ्रेड नोबेल के नाम पर रखे गए छह पुरस्कारों में से एक है.
विजेताओं का चयन नॉर्वे की संसद की ओर से चुनी गई पांच सदस्यीय कमिटी करती है.
अगर ट्रंप यह पुरस्कार जीतते हैं तो बहुत से लोग उन्हें एक विवादास्पद विजेता मानेंगे.
लेकिन नोबेल के शांति पुरस्कारों पर राजनीति की भी छाया रही है. इसलिए अन्य पांच क्षेत्रों में दिए जाने वाले नोबेल की तुलना में ये कहीं ज्यादा विवादित रहा है.
हम यहाँ ऐसे छह मामलों का जिक़्र कर रहे हैं, जिनमें से कई उस समय विवादित रहे तो कुछ बाद में.
साथ में उसका भी ज़िक्र है, जब जिस व्यक्ति को नोबेल का शांति सम्मान दिया जाना चाहिए था लेकिन नहीं दिया गया.
बराक ओबामाजब पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को 2009 में नोबेल शांति सम्मान मिला तो कई लोग हैरान थे. यहाँ तक कि ओबामा भी हैरान थे.
उन्होंने अपनी 2020 की आत्मकथा में लिखा कि जब उन्हें यह ख़बर मिली तो उनका पहला सवाल था- "किसलिए?"
उस समय उन्हें पद संभाले हुए सिर्फ नौ महीने ही हुए थे और आलोचकों ने इस निर्णय को समय से पहले उठाया गया क़दम बताया था.
असल में, नामांकन की अंतिम तारीख़ ओबामा के शपथ लेने के सिर्फ़ 12 दिन बाद ही समाप्त हुई थी.
2015 में नोबेल संस्थान के पूर्व निदेशक गेयर लुंडेस्टाड ने बीबीसी को बताया था कि पुरस्कार देने वाली कमिटी को बाद में अपने फ़ैसले पर पछतावा हुआ.
ओबामा के दोनों कार्यकालों के दौरान, अमेरिकी सेना अफ़गानिस्तान, इराक़ और सीरिया में सक्रिय युद्ध अभियानों में शामिल थी.
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फ़लस्तीनी नेता यासिर अराफ़ात को 1994 में नोबेल शांति सम्मान दिया गया था. उन्हें यह सम्मान तत्कालीन इसराइली प्रधानमंत्री यित्ज़ाक रॉबिन और तत्कालीन विदेश मंत्री शिमोन पेरेस के साथ संयुक्त रूप से दिया था.
उन्हें यह सम्मान ओस्लो शांति समझौते के लिए मिला था, जिसने 1990 के दशक में इसराइल-फ़लस्तीन संघर्ष के समाधान की उम्मीद जगाई थी.
लेकिन अराफ़ात को यह सम्मान देने का फ़ैसला विवादास्पद रहा क्योंकि वे पहले सशस्त्र गतिविधियों से जुड़े रहे थे.
इस निर्णय की इसराइल और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आलोचना हुई थी.
यहां तक कि नोबेल कमिटी के भीतर भी इस फ़ैसले को लेकर मतभेद था. समिति के एक सदस्य, नॉर्वे के राजनेता कारे क्रिस्टियानसन ने इस फ़ैसले के विरोध में इस्तीफ़ा दे दिया था.
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1973 में तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर को नोबेल शांति सम्मान से सम्मानित किया गया था.
यह फै़सला काफ़ी विवादास्पद साबित हुआ क्योंकि किसिंजर अमेरिकी विदेश नीति की कई विवादित घटनाओं से जुड़े रहे थे. जैसे, कंबोडिया में बमबारी और दक्षिण अमेरिका में हिंसक सैन्य तानाशाही शासन को समर्थन देने का फ़ैसला.
किसिंजर को यह सम्मान वियतनामी नेता ले डुक थो के साथ वियतनाम युद्ध में युद्धविराम समझौता कराने की भूमिका के लिए संयुक्त रूप से दिया गया था.
लेकिन इस फ़ैसले का कड़ा विरोध हुआ. नोबेल कमिटी के दो सदस्यों ने विरोध में इस्तीफ़ा दे दिया और न्यूयॉर्क टाइम्स ने इस खबर पर व्यंग्य करते हुए इसे "नोबेल वॉर प्राइज़" कहा था.
अबी अहमद2019 में इथियोपिया के प्रधानमंत्री अबी अहमद को नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.
उन्हें यह पुरस्कार पड़ोसी देश इरीट्रिया के साथ लंबे समय से चले आ रहे सीमा विवाद को सुलझाने के प्रयासों के लिए दिया गया था.
लेकिन सिर्फ़ एक साल बाद ही, यह सवाल उठने लगे कि क्या यह फ़ैसला सही था?
अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने अबी अहमद की उस कार्रवाई की आलोचना की, जिसमें उन्होंने उत्तरी क्षेत्र तिगरे में सैन्य बल तैनात किए.
इससे गृह युद्ध भड़क उठा, जिसमें लाखों लोग भोजन, दवाओं और अन्य आवश्यक सुविधाओं से वंचित हो गए थे.
माना जाता है कि इस संघर्ष में कई हज़ार लोगों की मौत हुई.
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बर्मा (म्यांमार) की राजनेता आंग सान सू ची को 1991 में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.
उन्हें यह पुरस्कार म्यांमार में सैन्य शासन के ख़िलाफ़ अहिंसक संघर्ष के लिए दिया गया था.
लेकिन 20 साल से अधिक समय बाद, आंग सान सू ची को भारी आलोचना का सामना करना पड़ा. उन्होंने अपने देश में मुस्लिम रोहिंग्या समुदाय के साथ हुए जनसंहार और गंभीर मानवाधिकार उल्लंघनों के खिलाफ आवाज़ नहीं उठाई.
संयुक्त राष्ट्र ने इन घटनाओं को "जनसंहार" कहा था.
स्थिति इतनी गंभीर हो गई कि कई लोगों ने उनसे नोबेल सम्मान वापस लेने की मांग की.
लेकिन नोबेल पुरस्कारों के नियमों में ऐसी किसी कार्रवाई यानी पुरस्कार वापस लेने या रद्द करने की अनुमति नहीं है.
वंगारी मथाईकीनिया की दिवंगत एक्टिविस्ट वंगारी मथाई वर्ष 2004 में नोबेल पुरस्कार जीतने वाली पहली अफ़्रीकी महिला थीं.
वो एक जीवविज्ञानी थीं और उन्हें यह पुरस्कार "ग्रीन बेल्ट मूवमेंट" शुरू करने के लिए दिया गया था. यह अभियान लाखों पेड़ लगाने और पर्यावरण संरक्षण के लिए जाना जाता है.
लेकिन उनकी इस उपलब्धि पर विवाद तब उठ खड़ा हुआ, जब उनके कुछ पुराने बयान सामने आए, जिनमें उन्होंने एचआईवी और एड्स को लेकर विवादास्पद टिप्पणी की थी.
मथाई ने कहा था कि एचआईवी वायरस को कृत्रिम रूप से एक जैविक हथियार के रूप में तैयार किया गया, जिसका उद्देश्य काले लोगों का विनाश करना था.
हालांकि, उनके इस दावे का कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है.
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नोबेल पुरस्कार अपनी कुछ बड़ी चूक के लिए भी जाना गया.
नोबेल शांति पुरस्कार की कैटिगरी में इस चूक का सबसे उल्लेखनीय उदाहरण हैं- महात्मा गांधी
20वीं सदी में अहिंसा और शांतिवाद के प्रतीक बने गांधी को पांच बार नॉमिनेट किए जाने के बावजूद कभी नोबेल पुरस्कार नहीं मिला.
2006 में नॉर्वे के इतिहासकार गेयर लुंडेस्टाड, जो उस समय नोबेल शांति पुरस्कार चयन समिति के अध्यक्ष थे, ने कहा था कि गांधीजी की उपलब्धियों को मान्यता न देना नोबेल इतिहास की सबसे बड़ी भूल है.
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