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खुद के खिलाफ होना 'प्रज्ञापराध', आयुर्वेद ने जो सदियों पहले सिखाया जानें उसे लेकर क्या कहता है आज का विज्ञान!

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New Delhi, 9 सितंबर . बाहर से सब कुछ सही दिखता है—अच्छा करियर, सोशल प्लेटफॉर्म पर मुस्कुराती तस्वीरें, और ढेर सारी उपलब्धियां. लेकिन अंदर कुछ तो ऐसा है जो टूटता सा महसूस होता है. कई लोग आज मानसिक और शारीरिक रूप से इतने थक चुके हैं कि उनकी नसें जवाब दे रही हैं. आधुनिक भाषा में इसे ‘बर्नआउट’ कहते हैं, तो हमारी प्राचीन चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद ‘प्रज्ञापराध’ यानी बुद्धि का अपराध.

आयुर्वेद में एक महत्वपूर्ण संकल्पना है- प्रज्ञापराध. यह तब होता है जब हम जानबूझकर वह करते हैं जो हमारे शरीर, मन और आत्मा के लिए हानिकारक है. हमें पता होता है कि देर रात तक जागना हमारी सेहत के लिए सही नहीं है, फिर भी हम स्क्रीन पर समय बिताते रहते हैं. हम थक चुके होते हैं, लेकिन खुद को और ज्यादा काम में झोंक देते हैं. हमारा मन विश्राम चाहता है, पर हम बाहरी दुनिया की अपेक्षाओं और उपलब्धियों के पीछे भागते रहते हैं. यही आधुनिक प्रज्ञापराध है- ज्ञान तो है, पर विवेक को सुनने की फुर्सत नहीं.

चरक संहिता में इसका स्पष्ट वर्णन है, जो है “स्मृति बुद्धि इन्द्रियाणां संयोगो यः स कारणम्. तं प्रज्ञापराधं प्राहुर्महर्षयः पथ्यहेतुकम्॥” (चरक संहिता,निवृत्तिप्रकरण, अध्याय 1)

मतलब जब स्मृति, बुद्धि और इंद्रियों का असंगत उपयोग होता है, तो वह रोगों को जन्म देता है. यही कारण है कि आयुर्वेद में प्रज्ञापराध को रोग का मूल कारण बताया गया है.

स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी की एक 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, ‘बर्नआउट’ उन लोगों में अधिक होता है, जो बाहर से परिपूर्ण दिखने की कोशिश में अपने भीतर की आवाज को नजरअंदाज कर देते हैं.

न्यूरोसाइंस भी कहता है कि जब हम लगातार शरीर के संकेतों को नजरअंदाज करते हैं-जैसे भूख, नींद, थकावट- तो मस्तिष्क का वो हिस्सा जिसमें निर्णय लेने की क्षमता होती है कमजोर हो जाता है. नतीजतन, तनाव, चिड़चिड़ापन और भावनात्मक असंतुलन जन्म लेते हैं. यानी आधुनिक विज्ञान भी वही कहता है जो आयुर्वेद हजारों दशकों से कहता आ रहा है. साधारण शब्दों में कहें तो अपने भीतर की लय को न तोड़ें.

केआर/

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