—पुण्यश्लोका लोकमाता के 300वीं जयंती पर सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में कार्यक्रम,
अहिल्याबाई के जीवन के तीन मूल स्तंभों धर्म, सेवा और न्याय को स्मरण किया गया
वाराणसी,31 मई . पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्याबाई होलकर की 300वीं जयंती शनिवार को सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में उत्साह के साथ मनाई गई. विश्वविद्यालय में पूर्वांह दस बजे से आयोजित कार्यक्रम में कुलपति प्रो. बिहारी लाल शर्मा ने लोकमाता के तस्वीर पर माल्यार्पण कर विनम्र श्रद्धांजलि दी.
इस अवसर पर कुलपति प्रो. शर्मा ने कहा कि भारतभूमि की दिव्य परम्परा में जिन व्यक्तित्वों ने अपने कर्तव्य, सेवा और धर्मनिष्ठा से इतिहास में अमिट छाप छोड़ी है, उनमें पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्याबाई होलकर का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है. उनका जीवन नारी शक्ति, लोकसेवा, सांस्कृतिक संरक्षण और सुशासन का अनुपम आदर्श प्रस्तुत करता है. इस वर्ष हम उनकी 300वीं जयंती (त्रिशताब्दी वर्ष) अत्यंत श्रद्धा, गर्व और प्रेरणा के साथ मना रहे हैं.
कुलपति प्रो. शर्मा ने कहा कि रानी अहिल्याबाई का जीवन इस सत्य का प्रमाण है कि भारतीय परंपरा में नारी को केवल श्रद्धा नहीं, नेतृत्व भी प्राप्त था. वे मालवा की साम्राज्ञी अवश्य थीं, किंतु उनका हृदय एक मातृभाव से ओतप्रोत था—इसीलिए वे ‘लोकमाता’ कहलाईं. पति की असामयिक मृत्यु और पुत्रवियोग के बावजूद उन्होंने जिस धैर्य, विवेक और धर्मबुद्धि के साथ शासन किया, वह आज के युग में भी शासनप्रणाली और सामाजिक उत्तरदायित्व का आदर्श है. उनका शासन न केवल न्याय और कल्याणकारी योजनाओं का उदाहरण था, अपितु भारतीय संस्कृति और तीर्थ परंपरा की पुनर्स्थापना का भी केन्द्र था.
उन्होंने काशी विश्वनाथ मंदिर, सोमनाथ, रामेश्वरम्, द्वारका, अयोध्या, गया, बद्रीनाथ आदि अनेकों तीर्थस्थलों का पुनर्निर्माण एवं व्यवस्थापन कराया. उस काल में जब देश राजनीतिक अस्थिरता से गुजर रहा था, लोकमाता अहिल्याबाई ने एक सांस्कृतिक शृंखला को पुनः जाग्रत किया. कुलपति ने कहा कि अहिल्याबाई का जीवन तीन मूल स्तंभों पर आधारित था—धर्म, सेवा और न्याय . वे प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में पूजा-अर्चना करके दिनभर प्रजा जनों की आवश्यकताओं, न्यायालयीन मामलों और जनकल्याण योजनाओं में लगी रहती थीं. उनके न्याय में राजा और प्रजा समान रूप से उत्तरदायी माने जाते थे. उन्होंने धन-संपत्ति
अहिल्याबाई होलकर का जीवन उन मूल्यों का मूर्तरूप था, जो संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों की आत्मा हैं—भारतीय संस्कृति, संस्कार, विद्या और सेवा. आज जब हम भारतीय ज्ञान परंपरा और संस्कृत भाषा के पुनरुत्थान का संकल्प ले रहे हैं, तब लोकमाता अहिल्याबाई की स्मृति हमारे लिए मार्गदर्शक बनती है. उन्होंने कहा कि पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्याबाई होलकर की त्रिशताब्दी जयंती केवल एक ऐतिहासिक स्मृति नहीं, यह एक जीवित प्रेरणा है—कि कैसे व्यक्ति साधन-संपन्न होते हुए भी संयमित, सेवा-निष्ठ, न्यायप्रिय और लोकमंगल के लिए समर्पित हो सकता है.
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/ श्रीधर त्रिपाठी
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